भारतीय संविधान की प्रकृति bhartiya samvidhan ki prakriti- Most Important

भारतीय संविधान की प्रकृति

भारतीय संविधान की प्रकृति / bhartiya samvidhan ki prakriti का सामान्य अर्थ है कि शासन का स्वरुप क्या है अर्थात् शासन संघात्मक है या एकात्मक. वस्तुतः शासन की प्रकृति संविधान के द्वारा निर्धारित होती है. इस सम्बन्ध में भारत का संविधान भारत को एक संघ घोषित करता है. 

भारतीय संविधान की प्रकृति

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत विभिन्न राज्यों का एक संघ हैं परंतु इस संघ के स्वरूप को लेकर विवाद की स्थिति हैं। इस विवाद का केन्द्रिय विषय है- भारतीय संविधान की  प्रकृति  संघात्मक है या एकात्मक ?

वस्तुतः आधुनिक संघ के विषय में अमेरिका को आदर्श रूप में माना जाता है, अमेरिका विभिन्न राज्यों से मिलकर बना एक संघ है जिसमें राज्यों ने आपसी समझौते के द्वारा एक संघ का निर्माण किया जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका के नाम से जाना जाता है. इससे स्पष्ट होता है कि एक संघ के निर्माण के लिए राज्यों के बीच समझौते का होना आवश्यक है.

किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले यह आवश्यक है कि हम भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधनों के तहत संघात्मक लक्षणों का विश्लेषण करें। अमेरिकी संविधान के आधार पर निर्धारित संविधान के संघीय विशेषताओं में से कई लक्षण भारतीय संविधान में भी मिलते हैं।

संविधानवेत्ताओं ने संविधानों को मुख्यतया दो वर्गो में विभाजित किया है- ‘परिसंघात्मक / संघात्मक’ और ‘एकात्मक’। ‘एकात्मक संविधान’ के अन्तर्गत सारी शक्तियाँ एक ही सरकार में निहित होती है जो प्रायः केन्द्रीय सरकार होती है। प्रान्तों को केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत रहना पड़ता है। इसके विपरीत परिसंघात्मक संविधान के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों के सरकारों के बीच शक्तियों का सुनिश्चित बँटवारा होता है। इसके अतिरिक्त एक लिखित संविधान होना चाहिए जो दुष्नमनीय हो एवं संविधान सर्वोच्च हो। एक निष्पक्ष संघीय अथवा सर्वोच्च न्यायालय की उपस्थिति भी संघात्मक संविधान की विशिष्टता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति: संघात्मक

जहाँ तक भारतीय संविधान की प्रकृति का ‘संघात्मक’ होने का प्रश्न है तो इसका बिन्दुवार विश्लेषण किया जा सकता है।

                प्रथमतः शक्तियों का बँटवारा- भारतीय संविधान में संघ और राज्यों में शक्तियों का सुनिश्चित बँटवारा मिलता है। संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची हैं। इनमें क्रमशः 97, 66 एवं 47 विषयों का समावेश है तथा क्रमशः संघ सरकार, राज्य सरकार एवं संघ तथा राज्य सरकार दोनों को क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

                द्वितीयतः लिखित संविधान का होना संघात्मक शासन व्यवस्था की अनिवार्यता है। संविधान सभा द्वारा नवंबर 1949 में संविधान का निर्माण किया गया। संघ और राज्यों, दोनों की सरकारों की शक्तियों का मूल स्रोत संविधान है।

                तृतीयतः संघीय सिद्धान्त से संबध संवैधानिक व्यवस्था में संशोधन करने की पद्धति दुष्नमनीय है। लिखित संविधान होने के कारण भारतीय संविधान स्वतः दुष्नमनीय हो गया। ऐसे संशोधन के लिए न केवल संसद के दोनों सदनों की कुल संख्या के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है वरन्, आधे राज्यों के विधान मंडलों की भी पुष्टि आवश्यक होती है।

                चतुर्थ, भारतीय संविधान को सर्वोच्चयता प्राप्त है। संघ और राज्यों की समस्त सत्ताओं यथा विधायिकाओं, कार्यपालिकाओं तथा न्यायपालिकाओं की सत्ताओं का मूल स्रोत संविधान है और ये सभी संविधान के अधीन हैं।

                अंततः निष्पक्ष न्यायपालिका के रूप में संविधान एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था करता है। इसे संविधान की व्याख्या का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त है इसे संघ और किसी एक राज्य अथवा संघ और एक से अधिक राज्यों अथवा किसी एक राज्य और दूसरे राज्य, अथवा किसी एक राज्य और एक से अधिक राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों के संबंध में मौलिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं।

                इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संघीय राज्य के लिए अत्यावश्यक सभी प्रमुख तत्व भारतीय संविधान में विद्यमान हैं। किन्तु भारतीय संविधान में कुछ ऐसे तत्व भी हैं, जो संघीय शासन पद्धति के लिए साधारणतया मान्य मापदण्डों से कुछ विपरीत हैं। ऐसे तत्वों में से कुछ मुख्य तत्व निम्नानुसार हैं:

भारतीय संविधान की प्रकृति: एकात्मक

भारतीय संविधान के एकात्मक व्यवस्था के निम्न लक्षण हैं:-

    1. राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ
        • संविधान के अनु. 352 से 360 के अंतर्गत आपातकाल सम्बन्धी प्रावधान हैं। आपातकाल के दौरान संसद राज्यसूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है, राज्य की शक्तियों को निर्देशित करता है, प्रशासनिक एवं वित्तीय शक्तियाँ भी केन्द्र के हाथों में आ जाती है
    2. केन्द्र को अवशिष्ट शक्तियाँ- तीन सूचियों के अतिरिक्त विषयों या विवाद की स्थिति में केन्द्र का निर्णय सर्वमान्य होगा। 
    3. शक्तियों का विभाजन केंद्र की ओर झुका हुआ है। संघ सूची सबसे बड़ी है तो समवर्ती सूची में केंद्र को वरीयता प्राप्त है। 
    4. संसद को राज्य की सीमा, नाम एवं क्षेत्र में परिवर्तन का अधिकार है, इसका अर्थ यह हुआ कि राज्यों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है तथा यह भारतीय संघ से अलग नहीं हो सकता है।
    5. राज्यसभा संविधान के अनुच्छेद 249 के प्रावधानों के तहत राज्यसूची के विषय पर भी कानून बना सकती है।
    6. राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है तथा वह किसी भी विधेयक को अपने वीटो का प्रयोग पर राष्ट्रपति के अनुमति हेतु आरक्षित कर सकता है।
    7. केन्द्र अखिल भारतीय सेवाओं के माध्यम से भी राज्य प्रशासन पर नियंत्रण रखता हैं।
    8. राज्यों के निर्माण, उसके नाम एवं सीमा में परिवर्तन करने का अधिकार केंद्र के पास है ।
    9. वित्तीय मामलों में राज्यों के पास सिमित अधिकार हैं तथा अनुच्छेद 280 के तहत केंद्र सरकार वित्त आयोग का गठन करता है जो राज्यों के मध्य राजस्व के वितरण के लिए फार्मूला निर्धारित करता है।
    10. साधारणतया संघ राज्यों में दोहरी नागरिकता, संघीय नागरिकता तथा राज्य की नागरिकता की व्यवस्था होती है, किन्तु भारत वर्ष में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भारत में इकहरी नागरिकता की व्यवस्था है।

अन्ततः यह कहा जा सकता है कि वास्तव में भारतीय संविधान न तो शुद्ध रूप से संघात्मक है और न शुद्ध रूप से एकात्मक बल्कि यह दोनों का समन्वय है। कुछ संदर्भो में यह एक नए प्रकार के संघ राज्य को निरूपित करता है जिसका सिद्वांत है- संघात्मक होते हुए भी राष्ट्रीय हित सर्वोच्च है और इस स्थिति में एकात्मकता ज्यादा प्रभावी हो जाती है। भारतीय संविधान के प्रकृति के संबध में “अर्धसंघीय”, “परिसंघीय” आदि शब्दाबली का प्रयोग किया जाता है।

  • इन लक्षणों के अतिरिक्त कुछ महत्वपूर्ण राजव्यवस्था विश्लेषकों के चर्चित मतों को भी देखा जा सकता हैं जो निम्नलिखित हैं-

के. सी. व्हीलर के अनुसार भारतीय संविधान अर्धसंघात्मक है।

ग्रेनविल ऑस्टिन  ने भारतीय संविधान के तहत संघ के स्वरूप को ‘सहकारी परिसंघवाद’ की संज्ञा दी है। इस अवधारणा के अनुसार शासन संचालन में केन्द्र एवं राज्यों के बीच प्रशासनिक सहमति के व्यवहार पर बल दिया जाता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति के बारे में विद्वानों के मत

डॉ• भीमराव अम्बेडकर ने  कहा है कि “भारतीय संविधान समयानुसार एकात्मक और संघात्मक हो सकता है।”

प्रो• के• सी• ह्वियर के अनुसार  “भारतीय संविधान एक अर्द्धसंघीय संविधान है।”

एस• आर• बोम्मई  बनाम भारत संघ के  वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भारतीय संविधान परिसंघीय संविधान है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न 

Q:- भारतीय संविधान के प्रस्तावना में उल्लिखित विभिन्न अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करते हुए प्रस्तावना के दर्शन एवं महत्व पर टिप्पणी करें।  

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