Anti Defection Law in Hindi | दल बदल विरोधी कानून हिन्दी में – Important Recent development

Anti Defection Law

Anti Defection Law in Hindi (Dal Badal Kanoon) ||  दल-बदल कानून || दल-बदल कानून के कारण ||  राजनीतिक दल-बदल क्या है || दल-बदल कानून कब लागू हुआ || दल-बदल कानून upsc ||  10 वीं अनुसूची क्या है || दल बदल क्या है ||  52 वां संविधान संशोधन कब हुआ 

दल-बदल कानून से संबंधित विषय पिछले कुछ समय से विभिन्न राज्यों की राजनीति में लगातार चर्चा में रहा है। प्रतियोगिता परीक्षाओं में इसके विभिन्न पहलुओं से प्रश्न पूछे जाते हैं । 

संभावित अभ्यास प्रश्न

दल बदल कानून के प्रमुख प्रावधान क्या है? हाल ही में इसको लेकर किस प्रकार के विवाद हुए हैं?

What are the main provisions of the anti-defection law? What kind of controversies has happened recently?

गठबंधन सरकार की सीमा के रूप में दल बदल की राजनीति के कारणों का विश्लेषण हाल के घटनाक्रम  के संदर्भ में करें तथा इस संबंध में संविधान में क्या प्रावधान हैं ? 

Analyze the reasons for the politics of defection in the form of limitation of a coalition government in the context of recent developments and what are the provisions in the constitution in this regard?  

Table of Contents

Anti Defection Law | दल बदल कानून

What is Anti Defection Law ? (दल बदल कानून क्या है?)

भारत एक बहुदलीय लोकतान्त्रिक देश है जिसमें प्रत्येक राजनैतिक दल अपने अपने विचारधारा एवं नीतियों के आधार पर एक दूसरे से भिन्न होते हैं तथा इनके सदस्य संबंधित दल के विचारधारा से सम्बद्ध होते है किन्तु कई कारणों से राजनैतिक दल का कोई सदस्य जब अपनी सदस्यता त्यागकर किसी अन्य राजनैतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है अथवा अपना स्वयं का एक अलग राजनैतिक दल बना लेता है तो यह घटना दल-बदल कहलाती है इसको रोकने के लिए निर्मित कानून “दल बदल कानून” (Anti defection law) कहलाता है।

भारत की राजनीति में 1970 के बाद से गठबंधन का दौर आरंभ होता है जिसमें छोटे स्थानीय राजनीतिक दलों की भूमिका प्रमुख होने लगती है इसके साथ ही दल-बदल की घटनाएं भी बढ़ती हैं तथा सरकारों के स्थायित्व पर प्रश्न चिन्ह लगता रहता था।

Anti Defection Law

Need of Anti Defection Law (दल बदल कानून की आवश्यकता या दल बदल के कारण)

सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि जब कोई समाज सामाजिक और आर्थिक रूप से परिवर्तन के दौर से गुजरता है तो वह ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित करता है जिससे गठबंधन अनिवार्य हो जाता है अर्थात किसी एक दल को सदन में बहुमत प्राप्त नहीं होता है तथा यह परिस्थिति राजनीति में कई अवसरों को खोलता है जिसके परिणाम के रूप में सदस्यों द्वारा दल बदल किया जाता है।

दल बदल के कारणों में सबसे प्रमुख कारण व्यक्तिगत लाभ की प्राप्ति है। इसके परिणामस्वरूप सरकार की स्थिरता सदैव खतरे में रहती है। 1990 के दशक में दल-बदल कानून की आवश्यकता समझी जाने लगी।

52 वां संविधान संशोधन || 10 वीं अनुसूची

संविधान में 52 वां संविधान संशोधन 1985 में किया गया। 52 वें संविधान संशोधन (1985) के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया तथा इसके लिए संविधान की दसवीं अनुसूची (10 वीं अनुसूची) जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है, को भारतीय संविधान जोड़ा गया।

इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की व्यवस्था को समाप्त करना था, जो भारतीय राजनीति में काफी प्रचलित थी।
दल-बदल कानून के कारण देश की राजनीतिक व्यवस्था में दल बदल की घटनाओं में कमी आई है।

दल-बदल कानून के मुख्य प्रावधान:

दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को निम्न आधारों पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है :

  • एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता त्यागकर किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • निर्दलीय प्रतनिधि के रूप मे निर्वाचित कोई सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • किसी सदस्य द्वारा सदन में अपनी पार्टी के निर्देशों के विपरीत वोट किया जाता है अथवा कोई सदस्य स्वयं को अपने राजनीतिक दल के पक्ष में वोटिंग न कर स्वयं को वोटिंग से अलग रहता है।
  • यदि कोई मनोनीत सदस्य छह महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
    दल-बदल कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने की शक्ति है।

इस कानून का एक अपवाद भी है। यदि किसी सदस्य को सदन के स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया जाता है तो यदि वह चाहे तो अपनी राजनीतिक दल की सदस्यता से इस्तीफा दे सकता है और जब वह स्पीकर या अध्यक्ष का पद छोड़ता है तो फिर से अपनी पार्टी में शामिल हो सकता है। इस मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि यह परिपाटी सामान्य तौर पर ब्रिटेन में देखने को मिलता है जब अध्यक्ष पद पर रहते समय सदस्य अपने पार्टी का त्याग कर देते हैं।

10 वीं अनुसूची में आरंभ यह प्रावधान किया गया था कि  यदि किसी पार्टी के एक-तिहाई विधायकों ने किसी दूसरी पार्टी में खुद को विलय किया है टो उसे मान्य माना जाएगा। इस सामूहिक विलय का दुरुपयोग किया जाने लगा जिसके बाद वर्ष 2003 में 91वां संविधान संशोधन किया गया जिसके द्वारा सामूहिक दल बदल को अमान्य कर दिया गया।

इस संशोधन के बाद व्यक्तिगत एवं सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक कर दिया गया। इस कानून के प्रावधान के अनुसार सदन के अध्यक्ष को इस संबंध में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र किया गया किन्तु प्रायः यह पाया गया कई अध्यक्ष का निर्णय निष्पक्ष नहीं रहा है। 

क्या दल-बदल कानून न्याययोग्य है ?

दल-बदल कानून के लागू होने के बाद सदन के अध्यक्ष को इसपर एक विशेषाधिकार प्राप्त रहा है जिसका दुरुपयोग किया गया क्योंकि एक सामान्य परिपाटी है कि विधायिका एवं न्यायपालिका स्वतंत्र हैं एवं एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।


किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू वाद (1993) में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा था कि विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा। अर्थात विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।

कुछ लोगों का मानना है कि जनप्रतिनिधियों को अपने पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर स्वयं निर्णय लेना चाहिए एवं दल-बदल कानून संविधान प्रदत्त उनके स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है, किन्तु न्यायपालिका ने इसी वाद में कहा कि दल-बदल कानून संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करते हैं।

दल बदल के संबंध में अन्य प्रावधान

उल्लेखनीय है कि दल बदल करने वाले प्रतिनिधियों के सम्बद्ध  में 1990 में चुनाव सुधारों को लेकर गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा था कि दल-बदल कानून के तहत सदस्यों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति द्वारा क्रमश: सांसद एवं विधायक के लिए लिया जान चाहिए। समिति ने मनोनीत सदस्यों द्वारा किसी दल की सदस्यता स्वीकार करने पर उसके  सदन की सदस्यता समाप्त करने की अनुशंसा की थी।

दल बदल के सम्बद्ध में विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट में भी सुझाव दिया गया है। आयोग ने कहा है कि चुनाव पूर्व गठबंधन में शामिल राजनैतिक दलों के लिए गठबंधन को एक राजनैतिक दल मानकर उसपर दल-बदल कानून लागू किया जाना चाहिए।

दल-बदल कानून की अप्रभावशीलता

हाल में कुछ राज्यों में दल बदल के द्वारा सत्ता प्राप्त किया गया जिसने इस कानून की प्रसंगिकता पर प्रश्न खड़े कर दिए.

गोवा, 2017: कांग्रेस ने 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव में 16 सीटें हासिल की और वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। वहीं, भाजपा को 14 सीटें मिलीं। इसके बाद भी भाजपा ने निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया।

मणिपुर, 2017: मणिपुर की 60 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 28 और भाजपा को 21 सीटें हासिल हुईं। किन्तु संख्या में कम होने के बावजूद भाजपा ने कुल 32 विधायकों के समर्थन से सरकार बना ली।

  • उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर से सम्बन्धित एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि दल बदल विरोधी कानून के अनुसार किसी सदन के सदस्य की योग्यता के निर्धारण की अंतिम शक्ति उस सदन के पीठासीन अधिकारी के पास होता है, किन्तु कई मामलों में वह निष्पक्ष नहीं भी हो सकता है, इसलिए सदस्यों की योग्यता के निर्धारण के लिए एक अलग से अधिकरण (ट्रिव्यूनल) बनाया जा सकता है, यद्यपि यह सलाहकारी सुझाव है, निर्देश नहीं।
  • दरअसल मणिपुर विधानसभा के सदस्य श्यामकुमार अपनी पार्टी छोड़कर सत्ताधारी दल (BJP) में शामिल हो गये ऐसे में नियमतः तो उनकी सदस्या रद्द होनी चाहिए किन्तु कानून में फैसला सुनाने की समय सीमा का प्रावधान न होने के कारण मणिपुर विधानसभा अध्यक्ष (सत्ताधारी दल से) फैसला नहीं सुनाया। कई बार तो ऐसा देखा गया है कि सदस्य के कार्यकाल समाप्त होने के बाद अध्यक्ष का फैसला आया है।

कर्नाटक, 2019: 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को 104 सीटों पर जीत हासिल हुई। जबकि कांग्रेस को 80 और जेडीएस को 37 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। इसके बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन किया और कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने। हालांकि, कुछ दिनों बाद 11 (8 कांग्रेस और 3 जेडीएस) विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह सरकार गिर गई और भाजपा ने फिर बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में सरकार का गठन किया।

  • इसके पहले जुलाई- 2019 में कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष के. आर. रमेंश कुमार ने 17 विधानसभा सदस्यों को आयोग्य (इस कानून के तहत) घोषित कर दिया, इसमें 14 कान्ग्रेसी तथा 3 JDS के सदस्य थे, तथा इन्हें वर्तमान विधानसभा के कार्यकाल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया. उल्लेखनीय है कि इस संदर्भ में बाम्बे उच्च न्यायालय ने कहा था कि एक बार आयोग्य घोषित हो जाने पर वर्तमान विधान सभा के कार्यकाल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगाना चाहिए. किन्तु कर्नाटक के इस मामले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने पर उच्चतम न्यायालय ने आयोग्य सदस्यों को उसी कार्यकाल में चुनाव लड़ने की छूट प्रदान की जिससे वे पुनः निर्वाचित हो सके हैं, जिससे वे पुनः निर्वाचित हो सके हैं।

मध्य प्रदेश 2020 : विधानसभा चुनाव के बाद 2018 में काँग्रेस ने सरकार बनाई किन्तु आगे चलकर काँग्रेस के 21 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया तथा अगले ही दिन बीजेपी में शामिल हो गए। तत्पश्चात बीजेपी की सरकार बन गई। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश में कुल 25 विधायकों ने अलग अलग समय पर बीजेपी में शामिल हुए जिनमें से 17 विधायक उप चुनाव में बीजेपी के चिन्ह पर चुनाव जीत कर सदन पहुचे इनमें से कई को मंत्री बनाया गया।

बिहार विधानसभा के लिए दो गठबंधन ने मुख्यत: चुनाव में हिस्सा लिया एनडीए एवं महागठबंधन जिसमें बीजेपी की पूर्व सहयोगी जनता दल(यू) शामिल थी। चुनाव बाद महागठबंधन की सरकार बनी किन्तु कुछ ही समय बाद जनता दल(यू) ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर पुन: सरकार बना ली।

दल बदल कानून की कमी का लाभ उठाकर आज भी सरकारे परिवर्तित होती हैं। सबसे महत्वपूर्ण विषय नैतिकता एवं विचारधारा का है। लोकतंत्र में मतदाता व्यक्ति के साथ साथ राजनीतिक दल एवं गठबंधन को ध्यान में रखकर अपना मत देते हैं। किन्तु चुनाव बाद यदि व्यक्ति अथवा राजनीतिक दल अपना राजनीतिक दल अथवा गठबंधन बदल ले तो यह  मतदाताओं के साथ एक धोखे के समान हैं। इसलिए कठोर प्रावधान किए जाने की आवश्यकता है।

 

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FAQ : दल बदल विरोधी कानून

दल बदल विरोधी कानून भारत में कब लागू हुआ ?

भारत में 1985 में 52 वां संविधान संशोधन के द्वारा इसे भारत में लागू किया गया है।

राजनीतिक दल-बदल क्या है?

जब कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक दल के टिकट पर या निर्दलीय किसी सदन के लिए निर्वाचित होता है तथा जब वह निर्वाचन के बाद किसी अन्य राजनीतिक दल की सदस्यता स्वीकार कर लेता है तो इसे राजनीतिक दल-बदल कहा जाता है।

दल बदल विरोधी अधिनियम क्या है ?

52 वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान के दसवीं अनुसूची में शामिल प्रावधान हैं जो किसी सदस्य या सदस्यों के एक गुट द्वारा दल बदल करने पर उनकी सदस्यता समाप्ति का प्रावधान करते हैं।

दल बदल के संबंध में दिनेश गोस्वामी समिति की क्या सुझाव थे ?

1990 में चुनाव सुधारों को लेकर गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने दल बदल करने के संबंध में कहा था कि
1. दल-बदल कानून के तहत सदस्यों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति द्वारा क्रमश: सांसद एवं विधायक के लिए लिया जान चाहिए।
2. समिति ने मनोनीत सदस्यों द्वारा किसी दल की सदस्यता स्वीकार करने पर उसके  सदन की सदस्यता समाप्त करने की अनुशंसा की थी।

दल बदल कानून का अपवाद क्या है?

जब कोई निर्वाचित सदस्य किसी सदस्य का अध्यक्ष निर्वाचित होता है तब यदि वह चाहे तो अपने राजनीतक दल की सदस्यता त्याग सकता है तथा कार्यकाल की समाप्ति के बाद पुन: यदि वह अपनी पुरानी पार्टी में शामिल होता है टो इसे दल बदल नहीं माना जाएगा।

दल बदल विरोधी कानून में कब संशोधन किया गया?

91वें संविधान संशोधन द्वारा दल बदल विरोधी कानून में वर्ष 2003 में संशोधन किया गया जिसके द्वारा सामूहिक दल बदल को अमान्य कर दिया गया।

दल बदल विरोधी कानून किस प्रधानमंत्री के समय में लागू हुआ?

दल-बदल विरोधी कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय 1985में लागू हुआ।

दल बदल कानून किसके द्वारा लागू होता है?

दल बदल कानून सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) या सभापति द्वारा लागू होता है। दल-बदल कानून लागू करने के सभी अधिकार सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) या सभापति को दिए गए हैं।

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