Features of Indus Valley Civilization in Hindi | सिंधु घाटी सभ्यता की 4 विशेषताएं

Features of Indus Valley Civilization in Hindi | सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएं

Features of Indus Valley Civilization in Hindi (सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएं) एक बड़ा टॉपिक है जिसके सिर्फ उन्हीं विशेषताओं का वर्णनं किया गया है जिनसे प्रश्न पूछने की संभावना रहती है.  

सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएं

सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएं (Features of Indus Valley Civilization in Hindi) के अंतर्गत मुख्य रूप से सिन्धु घाटी सभ्यता के उद्भव से लेकर पतन तक की अवधि में  प्रचलित राजनितिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक विशेषताओं को शामिल किया गया है। इस खंड  संकल्पनात्मक एवं तथ्यात्मक दोनों प्रकृति के प्रश्न पूछे जाते हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता : उद्भव एवं विकास 

सिंधु घाटी सभ्यता के उद्भव के विषय में मुख्य रूप से दो विचार प्रकट किए जाते हैं, प्रथम क्रमिक विकास का सिद्धांत एवं द्वितीय बाह्य व्यक्तियों द्वारा निर्मित सभ्यता।

क्रमिक विकास की अवधारणा के अनुसार मेहरगढ़ जैसे जगहों  पर काफी पहले ही स्थाई निवास एवं कृषि तथा पशुपालन के साक्ष्य मिल रहे थे । इन ग्रामीण सभ्यताओं से परिपक्व नगरिय हड़प्पा सभ्यता का उद्भव हुआ।

उत्खनित स्थलों से हड़प्पा सभ्यता के परिपक्व चरण के साक्ष्य मिलते हैं, लम्बवत खुदाई के अभाव में विकास क्रम के विषय में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का मानना है कि बाहर से आकार लोगों ने इस सभ्यता की नींव डाली इसलिए यह सभ्यता सीधे परिपक्व चरण मे मिलती है।

हड़प्पा सभ्यता को हड़प्पा पूर्व, परिपक्व हड़प्पा तथा उत्तर हड़प्पा काल में बाँटा जाता है।

हड़प्पा पूर्व बस्तियों के अवशेष पाकिस्तान के निचले सिन्ध और बलूचिस्तान प्रान्त में तथा राजस्थान के कालीबंगा में मिले हैं।

हड़प्पा सभ्यता का परिपक्व चरण का साक्ष्य हड़प्पा, मोहनजोदड़ों, चनहुदड़ों, लोथल आदि स्थलों से मिलता है। 

उत्तर हड़प्पा काल/चरण जिसे ‘उपसिन्धु संस्कृति’, ‘उत्तर हड़प्पा संस्कृति’ भी कहा जाता है, का साक्ष्य मध्य एवं पश्चिमी भारत, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिखाई देते हैं। इनका काल मोटे तौर पर 1800 ई.पू. से 1200 ई.पू. तक माना जाता है।

उत्तर हड़प्पा संस्कृतियाँ मूलतः ग्रामीण सभ्यता एवं ताम्र पाषाणिक थीं। उत्तर हड़प्पाई अवस्था में पकाई हुई ईंटें केवल हरियाणा के भगवानपुरा में  मिली हैं। पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत स्थित स्वात घाटी उत्तर हड़प्पा संस्कृति का उत्तरी छोर है।

आलमगीरपुर में उत्तर हड़प्पाई लोग कपास भी उपजाते थे। हड़प्पोत्तर काल के लोग काला धूसर ओपदार मृदभाण्ड का प्रयोग करते थे।

सिंधु घाटी सभ्यता की राजनीतिक व्यवस्था

हड़प्पा संस्कृति के व्यापकता एवं सुव्यवस्थित विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी।

हड़प्पा कालीन राजनीतिक व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप के बारे में हमें कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। चूँकि हडप्पा सभ्यता में व्यापर वाणिज्य की प्रमुखता थी, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वाणिक वर्ग के हाथ में ही था।

 

विद्वान राजनीतिक प्रणाली सम्बन्धी विचार 
व्हीलरमध्य वर्गीय जनतन्त्रात्मक जिसमें धर्म की महत्ता  
स्टुअर्ट पिग्गटपुरोहित वर्ग की भूमिका 
हंटर जनतन्त्रात्मक 
मैके प्रतिनिधि शासन व्यवस्था 

 

सिन्धु सभ्यता की विशेषताएं एक अवलोकन –

सिन्धु सभ्यता की विशेषताएं Features of Indus Valley Civilization in Hindi

सिंधु घाटी सभ्यता की सामाजिक व्यवस्था

समाज की मौलिक इकाई परम्परागत तौर पर परिवार थी। मातृदेवी की पूजा तथा मुहरों पर अंकित चित्र से यह परिलक्षित होता है कि हड़प्या समाज सम्भवतः मातृसतात्मक थी। 

नगर नियोजन, दुर्ग, मकानों की रूपरेखा तथा शवों के दफनाने के ढंग को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि सैन्धव समाज अनेक वर्गों, जैसे- पुरोहित, व्यापारी, अधिकारी, शिल्पी, जुलाहे एवं श्रमिकों में विभाजित रहा होगा।

हड़प्पा सभ्यता में कहीं से भी संयुक्त दीवार का साक्ष्य नहीं मिलता और खिड़कियों के अभाव में भी एकल परिवार व्यवस्था ही दिखती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार का आभाव मिलता है। समाज में सामूहिकता का अभाव था। 

समाज में नवीनता के प्रति ललक नहीं थी अर्थात् जो व्यवस्था प्रचलित थी उसमें परिवर्तन होता नहीं मिलता है जिससे प्रतीत होता है कि यह एक रूढ़िवादी समाज था।

सिंधु घाटी से चार प्रजातियों – प्रोटो आस्ट्रेलायड, भू-मध्य सागरीय, अल्पाइन व मंगोलायड (निग्रिटो प्रजाति नहीं ) के साक्ष्य मिले हैं। सिंधु सभ्यता से प्राप्त  अस्थिपंजर में अधिकांशतः भूमध्यसागरीय प्रजाति के हैं। किन्तु हड़प्पा नामक स्थल में सर्वाधिक व्यक्ति प्रोटो आस्ट्रेलायड थे। 

सैन्धव सभ्यता के लोग युद्ध प्रिय कम तथा शान्तिप्रिय अधिक थे किसी भी स्थल से युद्ध के हथियार नहीं मिले हैं नगर का दुर्गीकरण भी आक्रमण से सुरक्षा के लिए नहीं था । पूरी सभ्यता में कहीं भी सार्वजनिक शौचालय के प्रमाण नहीं मिलते।

नौशारों तथा मेहरगढ़ से प्राप्त नारी मूर्तियों में मांग में लाल रंग भरा है जिसे कुछ विद्वान सिन्दूर का साक्ष्य मानते हैं। 

सिन्धु सभ्यता के निवासी शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों थे।भोज्य  पदार्थों में गेहूँ, जौ, मटर, तिल, सरसों, खजूर, सुअर, बकरी, मछली, घड़ियाल, कछुआ आदि का मांस प्रमुख रूप से खाये जाते थे।

सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र पहने जाते थे। आभूषणों का प्रयोग पुरुष एवं महिलाएं दोनों करते थे

मनोरंजन के लिए पासे का खेल, नृत्य, शिकार, पशुओं की लड़ाई आदि प्रमुख साधन थे। धार्मिक उत्सव एवं समारोह भी समय-समय पर धूमधाम से मनाये जाते थे। लोथल से शतरंज की गोटी मिली है, प्रत्येक घर से मछली का कांटा मिला है।

शवों का अन्त्येष्टि संस्कार होता था, अन्त्येष्टि संस्कार की निम्न विधियाँ प्रचलित थी- 

  1. पूर्ण समाधिकरण में सम्पूर्ण शव को भूमि में दफना दिया जाता था।
  2. आंशिक समाधिकरण में पशु पक्षियों के खाने के बाद बचे शेष भाग को भूमि में दफना दिया जाता था।
  3. दाह संस्कार

हड़प्पा से प्राप्त ताबूत शवाधान का साक्ष्य, हड़प्पा सभ्यता की विशेषता नहीं है।

कालीबंगा में शवों को पेट के बल लिटाए जाने का प्रमाण मिला है। 

 

सिंधु घाटी सभ्यता की धार्मिक जीवन

पुरास्थलों से प्राप्त मिट्टी की मूर्तियों, पत्थर की छोटी मूर्तियों, मुहरों, पत्थर निर्मित लिंग एवं योनियों, मृदभाण्डों पर चित्रित चिन्हों से यह परिलक्षित होता है कि धार्मिक विचारधारा मातृदेवी, पुरुषदेवता ( पशुपतिनाथ), लिंग योनि, वृक्ष प्रतीक, पशु, जल आदि की पूजा की जाती थी।

सिंध व मेसोपोटामिया दोनों सभ्यताओं के लोग बैल, बत्तख व पाषाण स्तंभ को पवित्र मानते थे।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक शील पर तीन मुख वाला एक पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा हुआ है जिसके सिर पर तीन सींग हैं। उसके बायीं ओर एक गैंडा और भैंसा तथा दायीं ओर एक हाथी, एक व्याघ्र एवं हिरण है। इसे पशुपति शिव का आदिरूप माना गया है।

हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्तिका में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। यह सम्भवतः पृथ्वी देवी की प्रतिमा है। हड़प्पा सभ्यता के लोग धरती को उर्वरता की देवी मानकर इसकी पूजा करते थे।

हड़प्पा सभ्यता से स्वास्तिक, चक्र और क्रास के भी साक्ष्य मिलते हैं। स्वास्तिक और चक्र सूर्य पूजा का प्रतीक था।

सैन्धव सभ्यता के लोगों का धार्मिक विचार का आधार इहलौकिक तथा व्यावहारिक अधिक था।। मूर्तिपूजा का आरम्भ सम्भवतः सैन्थव सभ्यता से होता है।  शिव की पूजा निम्न रूपों – किरात रूप, नागधारी रूप, धनुर्धर रूप, एवं नर्तक रूप में की जाती थी। 

 

सिंधु घाटी सभ्यता की आर्थिक जीवन

हड़प्पा कालीन अर्थव्यवस्था मिश्रित थी। सिंधु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि अधिशेष, पशुपालन, विभिन्न दस्तकारियों में दक्षता और समृद्ध आन्तरिक और विदेश व्यापार पर आधारित थी।

कृषि

सिन्धु घाटी के लोग नवम्बर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में गेहूं और जौ के बीज बो देते थे और अप्रैल महीने में गेहूँ और जौ की फसल काट लेते थे।

सैन्धव सभ्यता में कोई कृषि उपकरण जैसे – फावड़ा या फाल नहीं मिला है; परन्तु कालीबंगा में हड़प्पा-पूर्व अवस्था में जुती हुई खेत से ज्ञात होता है कि हड़प्पा काल में राजस्थान के खेतों में हल जोते जाते थे।

संभवत: हड़प्पा सभ्यता के लोग लकड़ी के हलों का प्रयोग करते थे। फसल काटने के लिए पत्थर के हसियों का प्रयोग होता था।

फसल– सिंधु घाटी में प्रयुक्त निम्न प्रकार के फसलों की पहचान की गई है- चावल (गुजरात एवं राजस्थान), गेहूँ (तीन किस्में), जौ (दो किस्में), खजूर, तरबूज, मटर, राई, तिल आदि। 

सैन्धव सभ्यता के लोगों का मुख्य खाद्यान गेहूँ एवं जौ थे। लोथल के लोग 1800 ई.पू. में भी चावल प्रयोग करते थे।

मोहनजोदड़ो, हड़प्पा एवं कालीबंगा में अनाज बड़े-बड़े कोठारों में जमा किये जाते थे।

सर्वप्रथम कपास उत्पन्न करने का श्रेय सिन्धु सभ्यता के लोगों को जाता है। इसीलिए यूनानियों ने इसे सिंडोन जिसकी उत्पत्ति सिन्ध से हई है, नाम दिया है।

पशुपालन– सैन्धव लोग बैल, भेंड़, बकरी, सुअर आदि पालत थे। गाय का साक्ष्य नहीं मिला है। कूबड़ वाला सांड़ इस संस्कृति में विशेष महत्त्व रखता है।

घोड़े के अस्तित्व का संकेत मोहनजोदड़ो की एक ऊपरी सतह पर तथा लोथल में एक टेराकोटा मूर्ति से मिला है।

गुजरात के सुरकोटदा नामक स्थल से घोड़े के अस्थिपंजर के जो अवशेष मिले हैं, वे 2000 ई.पू. के आस-पास के हैं। इससे स्पष्ट है कि घोड़े का उपयोग  आम प्रचलन में नहीं था किन्तु वे इससे परिचित थे।

गुजरात के क्षेत्र के निवासी द्वारा हाथी पालने का साक्ष्य मिल है।

व्यापार

सिन्धु सभ्यता के लोगों के जीवन में व्यापार का बड़ा महत्त्व था। इसकी पुष्टि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल में अनाज के बड़े- बड़े कोठरों तथा ढेर सारी सीलों ( मृण्मुद्राओं) एकरुप लिपी और मानकीकृत माप- तौलों के अस्तित्व से होती है।

आंतरिक एवं बाहरी व्यापार होता था। हड़प्पाई लोग व्यापार में धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे, वे सारे आदान-प्रदान वस्तु विनियम द्वारा ही करते थे। व्यापार स्थलीय एवं जलीय दोनों होते थे।

स्थलीय व्यापार में अफगानिस्तान तथा ईरान एवं जलीय व्यापार में मकरान के नगरों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। बहरीन द्वीप (दिलमुन) के व्यापारी दोनों प्रदेशों (सिन्ध प्रदेश एवं ईरान) के बीच बिचौलियों का काम किया करते थे। 

सुमेरियन लेखों से ज्ञात होता है कि उन नगरों के व्यापारी ‘मेलुहा’ के व्यापारियों के साथ वस्तु विनिमय करते थे। ‘मेलुहा’ का अर्थ सिन्धु प्रदेश से निकाला गया है। मेसोपोटामिया के लेख में मेलुहा को नाविकों का देश कहते हैं।

इसके अतिरिक्त मुहरों पर जहाजों तथा नावों के चित्रांकन मिले हैं। लोथल से फारस की मुहरें तथा कालीबंगा से बेलनाकार मुहरें भी सिन्धु सभ्यता के व्यापार के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

फिरोजा, लाजवर्द, मणि-हरिताश्म और टिन सिन्धु घाटी में बाहर से मंगाये जाते थे।

सैन्धव सभ्यता की समृद्ध का प्रमुख कारण उसका विदेशी व्यापार था।

शिल्प एवं तकनीक 

सैन्धव लोग पत्थर के अनेक प्रकार के औजार प्रयोग करते थे। ताँबे के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार किया जाता था इसलिए इसे कांस्ययुगीन सभ्यता कहते हैं हालांकि हड़प्पा में काँसे के औजार बहुतायत से नहीं मिलते हैं।

सैन्धव सभ्यता के निवासी तांबा, टिन, सोना, चांदी आदि से परिचित थे तथा की स्थानों से इनहें मंगाया जाता था। 

इस काल में कुम्हार के चाक का खूब प्रचलन था। हड़प्पाई लोगों के मृदभाण्डों की अपनी खास विशेषताएँ थी। ये मृदभाण्डों को चिकने और चमकीले बनाते थे।

मोहनजोदड़ो के किसी बर्तन पर लेख नहीं मिला है, परन्तु हड़प्पा के बर्तनों पर लेख मिलते हैं। हड़प्पा के कुछ बर्तनों पर मानव के आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं।

 

सिंधु घाटी सभ्यता की संस्कृति 

लिपि 

सिन्धु लिपि अभी तक  पढ़ी नहीं जा सकी है। कनिंघम के अनुसार सैंधव लिपि का सम्बन्ध ब्राह्मी लिपि से है।

सिन्धु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 250 से 400 तक अक्षर हैं, जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों आदि पर मिलते हैं। लेखन प्रणाली साधारणतः अक्षर सूचक मानी गई है।

हड़प्पा लिपि भावचित्रात्मक (पिक्टोग्राफ) है और उनकी लिखावट क्रमशः दायीं ओर से बायीं ओर की जाती थी।

अधिकांश अभिलेख मृण्मुद्राओं (सीलों) पर है, इन सीलों का प्रयोग धनाढ्य लोग अपनी निजी सम्पत्ति को चिन्हित करने और पहचानने के लिए करते होंगे।

बाट

माप तौल की इकाई सम्भवतः 16 के अनुपात में थी; उदाहरण-16, 64, 160,320, 640 आदि। ये बाँट घनाकार, बर्तुलाकार, बेलनाकार एवं शंक्वाकार आकृति के थे।

मोहनजोदड़ो से सीप का बना हुआ तथा लोथल से हाथी दाँत का बना हुआ एक-एक पैमाना (स्केल) मिला है। इसका प्रयोग सम्भवतः लम्बाई मापने में किया जाता रहा होगा।

मृदभाण्ड

हड़प्पा मृदभाण्डों पर आमतौर से वृत्त या वृक्ष की आकृतियाँ मिलती हैं। (यही प्रमुख चित्रकारी थी)। कुछ ठीकरों पर मनुष्य की आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं। लाल पृष्ठभूमि पर काले रंग से चित्र बने थे।

मुहरें

हड़प्पा संस्कृति की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ उसकी मुहरें हैं। अब तक लगभग 2000 मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें से अधिकांश मुहरें (लगभग 500) मोहनजोदड़ों से मिली हैं। अधिकांश मुहरों पर लघु लेखों के साथ-साथ एक सिंगी सांड, भैंस, बाघ, बकरी और हाथी की आकृतियाँ खोदी गई हैं। मुहरों के बनाने में सर्वाधिक उपयोग सेलखड़ी (Steatite) का किया गया है।

लोथल और देसलपुर से ताँबे की बनी मुहरें प्राप्त हुई है। सैन्धव मुहरें बेलनाकार, वर्गाकार, आयताकार एवं वृत्ताकार हैं।

कुछ मुहरों पर देवी-देवताओं (जैसे पशुपति-शिव) की आकृतियों के चित्रित होने से यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि सम्भवतः इनका धार्मिक महत्त्व भी रहा होगा। वर्गाकार मुहरें सर्वाधिक प्रचलित थीं।

मोहनजोदड़ो, लोथल तथा कालीबंगा से राजमुद्रांक (Sealings) भी मिले हैं। इससे व्यापारिक क्रियाकलापों का ज्ञान होता है।

लघु मृणमूर्तियाँ

सिन्ध प्रदेश में भारी संख्या में आग में पकी मिट्टी (जो टेराकोटा कहलाती है) की बनी मूर्तिकाएं (फिगरिन) मिली हैं। इनका प्रयोग या तो खिलौने के रूप में या पूज्य प्रतिमाओं के रूप  में होता था। इनमें कुत्ते, भेड़, गाय, बैल और बन्दर की प्रतिकृतियाँ मिलती हैं।

नर और नारी दोनों की मृणमूर्तियाँ मिली हैं, यद्यपि नारी मृणमूर्तियाँ अधिक संख्या में मिली हैं। प्रस्तर शिल्प में हड़प्पा संस्कृति पिछड़ी हुई थी।

सिंधु घाटी सभ्यता का पतन

हड़प्पा सभ्यता के उद्भव की भाँति ही उसके विघटन का प्रश्न भी एक जटिल समस्या है।

इसके परवर्ती चरण में 2000 ई.पू. से 1700 ई.पू. के बीच किसी समय हड़प्पा कालीन सभ्यता का स्वतन्त्र अस्तित्व धीरे-धीरे विलुप्त हो गया।

इस सभ्यता के पतनोन्मुख और अन्ततः विलुप्त हो जाने के अनेक कारण हैं, जो निम्नलिखित हैं- 

  1. बाह्य आक्रमण
  2. भूतात्विक परिवर्तन
  3. जलवायु परिवर्तन
  4. विदेशी व्यापार में गतिरोध
  5. साधनों का तीव्रता से उपभोग
  6. बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदा
  7. प्रशासनिक शिथिलता

 

सिन्धु (हड़प्पा) सभ्यता के विघटन के बारे में विद्वान में मतैक्य नहीं है-

 

विद्वानपतन के कारण
गार्डन चाइल्ड, ह्वीलर एवं स्टुवर्ट पिगटबाह्य व आर्यों के आक्रमण
जान मार्शल, मैके एवं एस.आर.रावबाढ़
आरेल स्टाइन, ए.एन. घोषजलवायु परिवर्तन
एम.आर. साहनीजलप्लावन (बाढ़)
जान मार्शलप्रशासनिक शिथिलता
के.यू.आर. कनेडीप्राकृतिक आपदा
वी.के. थापर एवं रफीक मुगलपारिस्थितिकी परिवर्तन
फेयर सर्विस व डॉ. कुलदीप सिंहपारिस्थितिकी निम्नीकरण

 

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